आत्मकल्याण के लिए राग से त्याग की दिशा में बढ़े मानव : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

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-आचार्यश्री ने जनता को आसक्ति से बचने को किया अभिप्रेरित

-राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन व दीक्षांत समारोह के संभागियों को मिला मंगल आशीर्वाद

19.10.2024, शनिवार, वेसु, सूरत (गुजरात) :

डायमण्ड व सिल्क नगरी सूरत में तेरापंथ धर्मसंघ के महासूर्य, वर्तमान अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी का मंगल चतुर्मास अब सम्पन्नता की ओर बढ़ रहा है, लेकिन सूरत ही नहीं, बाहर से भी आने वाले श्रद्धालुओं का तांता मानों अभी भी लगा हुआ है। वहीं संस्थाओं व संगठनों के कार्यक्रमों का दौर भी जारी है। हालांकि समय अपनी गति से आगे से आगे बढ़ता रहा है। शनिवार को आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में हजारों की संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं ने अमृतवाणी का रसपान किया तो वहीं जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन व दीक्षांत समारोह के त्रिदिवसीय कार्यक्रम के दूसरे दिन मंचीय उपक्रम भी समायोजित हुआ। इस अवसर पर ज्ञानशाला प्रशिक्षकों को शांतिदूत आचार्यश्री से पावन पाथेय प्राप्त हुआ। 

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को महावीर समवसरण में उपस्थित जनता को आयारो आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि साधु साधनाशील होता है, होना चाहिए। साधना में जागरूक रहना भी अपेक्षित होता है। मोहनीय कर्म का प्रभाव पड़ता है तो साधना बाधित भी हो सकती है, इसलिए साधु को मोहनीय कर्म के प्रति सजग रहने की अपेक्षा होती है। मोहनीय कर्म का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है राग अथवा आसक्ति। साधु अपने लिए आसक्ति को खतरनाक और बाधा बनाने वाला तत्त्व समझे। 

आसक्ति का आवरण साधक के जीवन में न आए, ऐसा प्रयास करना चाहिए। द्वेष भी तभी हो सकता है, जब तक  राग की भावना होती है। जब किसी के प्रति राग हो जाए, आसक्ति हो जाए तो फिर द्वेष की भावना भी उत्पन्न हो जाती है। साधु कहीं भी राग भाव के साथ प्रतिबद्ध न बने। चाहे स्थान हो, चाहे कोई व्यक्ति हो, किसी भी रूप में आसक्ति को हावी न होने दे। साधु को सभी के प्रति राग का भाव रखने से बचने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, राग भाव से विरत रहने का प्रयास करना चाहिए। 

गृहस्थ जीवन में भी यदि किसी को साधना की दृष्टि से आगे बढ़ना है तो उसे आसक्ति, राग का त्याग करने का प्रयास करना चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि राग के समान कोई दुःख नहीं और त्याग के समान कोई सुख नहीं होता। जहां मांग हो, आकांक्षा हो, वहां वह वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती है तो दुःख होता है और जहां त्याग की भावना हो, सुख होता है। जितना संभव हो सके, ममत्व के भाव को कम करने का प्रयास करना चाहिए। ममत्व जितना कम होगा, आसक्ति जितनी कमजोर होगी, आत्मा कल्याण की दृष्टि से आगे बढ़ सकती है। 

आचार्यश्री ने तेरापंथी श्रावकों को आसक्ति का त्याग कर यथासंभव सुमंगल साधना की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करने की भी प्रेरणा प्रदान की। 

दक्षिण गुजरात, दादरा नगर हवेली व दमन-दीव के इनकम टैक्स आफिसर श्री पवन सिंह ने आचार्यश्री के दर्शन किए और पावन आशीर्वाद प्राप्त किया। 

आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आज राष्ट्रीय ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन व दीक्षांत समारोह का मंचीय कार्यक्रम रहा। इस संदर्भ में ज्ञानशाला के राष्ट्रीय संयोजक श्री सोहनराज चोपड़ा व महासभा के संगठन मंत्री श्री प्रकाश डाकलिया ने अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। सूरत ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। शांतिदूत आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पावन आशीर्वाद प्रदान किया। जयपुर से समागत श्री नरेश मेहता ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।

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