माया व प्रमाद से बार-बार होता है जन्म : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण

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23.10.2024, बुधवार, वेसु, सूरत (गुजरात) :

जनकल्याण के निरंतर अपनी अमृतवाणी का रसपान कराने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को महावीर समवसरण में उपस्थित जनता को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आयारो आगम में बताया गया है कि पुनर्जन्मवाद धार्मिक व अध्यात्म जगत एक सिद्धांत है। आत्मा का पूर्वजन्म भी था और पुनर्जन्म भी होने वाला है, तब तक आत्मा मोक्ष में नहीं जाती। पूर्वजन्म के बारे में कइयों को जानकारी हो जाती है, ऐसा सुनने व जानने में आता है। इसका जाति स्मृति ज्ञान का एक सिद्धांत भी है, लेकिन अगला जन्म कहां होगा, कोई उस विषय में नहीं बता सकता। जो आदमी मायावी और प्रमादी होता है, वह बार-बार जन्म लेता है। 

जिस आदमी के भीतर में गुस्सा, अहंकार, माया, लोभ, राग-द्वेष रूपी कषाय होते हैं, उनके कारण से आगे से आगे जन्म-मरण की परंपरा चलती है। अमरत्व की प्राप्ति धर्म की साधना का आधार होता है। जहां न राग-द्वेष है और नहीं जन्म और मृत्यु है, जहां न शरीर है और न ही वाणी है और न ही मन है। वह आत्मा की शुद्ध और सिद्ध अवस्था होती है। इसलिए यह बताया गया कि जो विषय कषाय से भावित होता है, प्रमादी है, उसका बार-बार जन्म-मरण होता रहता है। माया करने वाला, छल-कपट करने वाला प्रमादी और कषायग्रस्त चेतना वाला प्राणी होता है। जिसके कर्मों की जैसी स्थिति होती है, उसके अनुसार उसका बार-बार जन्म और मरण होता है। 

भगवान महावीर की आत्मा ने भी अनंत जन्म लिए थे। पर्युषण के दौरान उनके कुछ जन्मों का वर्णन भी करते हैं। हम सभी की आत्मा ने भी आज तक अनंत-अनंत बार जन्म-मरण किया है। आदमी को यह प्रयास करना चाहिए कि आगे बहुत ज्यादा न लेना पड़े, अपनी आत्मा हो असत् से सत् की ओर, तमस से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने की प्रार्थना हो। साधुपन की साधना मृत्यु से अमरत्व की दिशा की ओर साधना होती है। 

साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का आज दीक्षा दिवस है। आज से 32 वर्ष पूर्व उन्होंने समणी से साध्वी दीक्षा ली। कल साध्वीवर्या का दीक्षा दिवस था और आज साध्वीप्रमुखाजी का दीक्षा दिवस है। यह दीक्षा मृत्यु से अमरत्व की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने की साधना है। 

पूर्व न्यायाधीश श्री बसंतीलाल बाबेल ने अपनी 311वीं पुस्तक को श्रीचरणों में लोकार्पित करते हुए अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में उन्हें पावन आशीर्वाद प्रदान किया। श्री पदमचंद पटावरी ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी।

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