संयम विहार में संयम ग्रहण का भव्य समारोह के साक्षी बने हजारों नयन

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स्वयं की आत्मा से करे सच्ची मित्रता – युगप्रधान आचार्य महाश्रमण

– भव्य दीक्षा समारोह में मुमुक्षु चंद्रप्रकाश बने मुनि चंद्रप्रभ

10.11.2024, रविवार, वेसू, सूरत (गुजरात)

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में आज महावीर समवसरण का नजारा उमंग, उत्साह से भरा हुआ नजर आ रहा था। मौका था सूरत के दीक्षार्थी मुमुक्षु चंद्रप्रकाश चौपड़ा के दीक्षा ग्रहण का। चातुर्मास काल का यह तृतीय दीक्षा महोत्सव अपने आप में एक नव इतिहास का सृजन लिए हुए था। भौतिक चकाचौंध के बीच रह कर भी उनसे निर्लिप्त हो संयम मार्ग स्वीकार करना वर्तमान में किसी आश्चर्य से कम नहीं।
अपने अनुज भ्राता महाराज मुनि विनम्रकुमार जी के पदचिन्हों पर चलते हुए अग्रज भ्राता चंद्रप्रकाश भी अब गुरु चरणों में अपने जीवन परमार्थ को समर्पित करने समुत्सुक था। पारिवारिक जनों ने लिखित आज्ञा पत्र गुरू चरणों में निवेदित किया। हजारों की जन मेदिनी इस श्रद्धामय संयम ग्रहण के दृश्य को अपनी आंखों में कैद करने धर्म सभा में उपस्थित थी। जैसे ही आचार्य प्रवर ने आर्ष वाणी का उच्चारण करते हुए मुमुक्षु चंद्रप्रकाश को जीवन भर के लिए सर्व सावद्य योग का त्याग कराया समूची परिषद जय जयकारों से गुंजायमान हो उठी।

मंगल धर्म देशना में आचार्य श्री महाश्रमण जी ने कहा – इस संसार में मित्र बनाए जाते है। परस्पर मित्रता होती है किन्तु यह मित्रता का बाह्य रूप है, व्यावहारिक रूप है। आयारो आगमन में कहा गया है कि हे पुरुष ! तुम्हीं तुम्हारे मित्र हो, फिर बाहर मित्र क्यों खोज रहे हो ? मित्रता के ये विभिन्न रूप है कही बाह्य मित्रता व कही अभ्यन्तर मित्रता। निश्चय में तो मित्रता हमारी स्वयं की आत्मा से हो यह आवश्यक है। आत्मा ही शाश्वत मित्र है अतः आत्मा को मित्र बना लो। जो आत्मा को मित्र बना लेता है – उसके सामने बाहरी मित्र गौण हो जाता है।

गुरूदेव ने आगे कहा कि आत्मा को मित्र कैसे बनाया जाए तो इसके लिए संन्यास व साधुत्व का पालन करने वाले की आत्मा निश्चय नय में मित्र बन सकती है। निश्चय नय वाला आत्मा में व आत्म साधना में लीन बन जाता है। वह प्रवृति से निवृति की बात को ज्यादा महत्व देता है। मुख्य बात है आत्मा के हित की बात को सोचना। जो कर सकते हो उसे कर लो व उसे कल पर मत छोड़ो।

गुरू के हाथ में चोटी – नामकरण संस्कार
दीक्षा प्रदान करने के साथ ही आचार्य श्री ने नवदीक्षित मुनि के चोटी का केश लुंचन किया। यह शिष्य की गुरू के प्रति समर्पण की एक परम्परा है। तत्पश्चात नव दीक्षित मुनि को आध्यात्मिक नाम प्रदान करते हुए मुनि चंद्रप्रभ नाम प्रदान किया। उपस्थित धर्म सभा ने मत्थेन वन्दामि के उदघोष के साथ नवदीक्षित मुनि को वंदन किया। तत्पश्चात रजोहरण प्रदान का क्रम रहा।

समारोह में साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी ने उद्बोधन प्रदान किया। मुमुक्षु भाइयों ने दीक्षार्थी का परिचय प्रस्तुत किया। पारमार्थिक शिक्षण संस्था के अध्यक्ष श्री बजरंग जैन ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। तपस्या के क्रम में 12 वर्षीय बालक यश मेहनोत ने 31 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान गुरुदेव से किया।समारोह का संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार जी ने किया।

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